शमशेर : अभिव्यक्ति की कशमकश

अस्मिता सिंह की नई पुस्तक डाक खर्च सहित 350 रुपये में




शमशेर : अभिव्यक्ति की कशमकश


शमशेर की कविता को लेकर एक यह सवाल हमेशा उठता है कि देश और काल के नज़रिये से इस कवि की रचना को समझ पाना कितनी दूर तक सम्भव है। यह सवाल पेचीदा है क्योंकि शमशेर ने अपने तईं कविता के रूप को बाकी चीज़ों के बराबर तरज़ीह दी है। जिस गति के अधीन हम उनकी कविता में प्रवेश करते हैं वहाँ अड़चनें और दिशा-निर्देश एक साथ मिलते हैं। पहली अड़चन मसलन यह है कि वहाँ शब्द-चित्र प्रायः मौजूद होते हैं, जबकि बयान कभी-कभार ही दिखते हैं। उधर शब्द-चित्रों में भी रंगों और रेखाओं का खेल सीमित रखा जाता है क्योंकि शमशेर जो दिखलाते हैं वह जल्द ही पाठक का ध्यान चित्र से हटा देता है और ठोसपन, तरलता, बाँकापन, वैचारिक बारीकी, तथा सौंदर्य भावना में मौजूद हठ की तरफ़ इशारा करता है। आमतौर पर शब्दों का आधार कायम करते हुए शमशेर मनोवस्था का गहरा ज़िक्र करने लगते हैं। लेकिन तभी देश-काल का मसला सामने आ जाता है। यद्यपि सामयिकता से शमशेर कभी छूट नहीं लेते, फिर भी, वह बयान को किंचित सन्देह से देखते हैं।


यह पूछना भी वाजिब जान पड़ता है कि बीसवीं सदी के दूसरे दशक में जन्म लेने वाला कवि कम-अज़-कम तीसरे और चौथे दशकों के अहम सरोकारों का गवाह भी बना था– सरोकारों की तपिश के मद्दे नज़र कवि में वैचारिक टकराहट का आलम किसी भी अध्येता या सहभागी को भौंचक करता था। साहित्य पर सोचते हुए बात करें तो शमशेर के लिए प्रेमचन्द, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला आदि की उपस्थिति अवश्य ही आश्चर्य और प्रेरणा का वायस बनती होगी। ये सभी रचनाकार शमशेर के वरिष्ठ थे और उनके पास एक काव्यमना व्यक्ति के लिए सीखने को बहुत कुछ था। साहित्य से बाहर का आलम तो और अनोखा था– और कुछ की मानें तो बीस के दशक में गाँधी की अहिंसा सवालों के दायरे में आने लगी थी। लेकिन असल में बीस का दशक सही मायनों में गाँधी का दशक था– अचानक गाँधी की छवि उस अहिंसा के कारण राजनीतिक जीवन के केन्द्र में आ रही थी जिस पर चौरीचौरा के सन्दर्भ में विवाद होता था। वह विवाद ही गाँधी को राजनीति में एकमात्र नेता की तर्ज़ पर प्रतिष्ठित होने का सबब बना था। सोचें कि शमशेर बीस के दशक में साँस लेते हुए युवावस्था में दाखिल हो रहे थे और बदलाव के विचारों का सामना करते हुए आसपास की ऊर्जा को अपने भीतर बख़ूबी आने दे रहे थे। यह शुद्ध राजनीति का न होकर राजनीति और सामाजिक सोच के तीखे टकराव का वक्त था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद प्रथम विश्वयुद्ध के बाद कमज़ोर, भयभीत और इस कारण अतिशय असहनशील हो चला था– पूरे विश्व और भारत जैसे उपनिवेशों का ख़ास दबाव ब्रिटेन के लगभग हव्वा बन गया था। ऐसे में, गाँधी के कथित नरम तर्क और उनके सोच ने देश के मध्य वर्ग को, जो सुरक्षा को बाकी चीज़ों की निस्बत ऊँचा स्थान देता है, गाँधी की तरफ़ खींचना शुरू कर दिया था। बल्कि मध्य वर्ग के साथ देश का पूँजीपति वर्ग भी गाँधी की राजनीति में शरण लेकर ब्रिटिश शासन और उद्योग पर असर डाल सकता था, और यथासम्भव अपनी छोटी-बड़ी माँगों पर तत्कालीन शासन को बाकायदा राज़ी कर सकता था। विमर्शों की यह टकराहट किसी भी कवि-रचनाकार को शिक्षित करने में, उस व्यक्तित्व-निर्माण और भूमिका-निर्वहन में मदद दे सकती थी। शमशेर के काव्य-व्यक्तित्व की पुख़्तगी में बीस के दशक का वातावरण कारगर सिद्ध हो रहा था।
इस पुस्तक के शुरुआती पृष्ठों में नई कविता के इतिहास पर किंचित विस्तार से, अज्ञेय का सन्दर्भ लेकर विचार किया गया है। यह आवश्यक भी है क्योंकि अज्ञेय ने कोशिश के साथ ख़ुद को नई कविता का प्रवर्तक बतलाया था और अपनी तरफ़ से उसका तर्क भी दिया था। अस्मिता ने उस हवाले से जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही आदि का ज़िक्र किया है, जो पाठक के लिए काफ़ी उपयोगी है। इस बहस के पीछे लघु मानव और विश्व मानव का तर्क भी काम करता दिखलाया गया है। लेकिन असल चीज़ यहाँ शमशेर के काव्य पुरुष पर की गयी चर्चा है। वहाँ अस्मिता ख़ास तौर से शमशेर की कविता-पंक्तियों से मदद लेती हैं। इससे शमशेर का काव्य पुरुष से जुड़ा पक्ष सघनता ग्रहण करता है और इस पुस्तक का आवश्यक हिस्सा बनता है। इस बहस के निष्कर्ष के रूप में अस्मिता कहती है कि फिर भी, शमशेर की एक बड़ी मुश्किल यह है कि
उस साधक की चरम उपलब्धि भी अन्त-अन्त तक बहुत निजी-नितान्त वैयक्तिक ही रह जाती है। गतिशील सामाजिक परिदृश्य में उसका अर्थ-विस्तार नहीं हो पाता। ... इसमें कोई शक नहीं कि शमशेर की कुछ अपनी सीमाएँ हैं और वे बहुत स्पष्ट सीमाएँ हैं, मगर नई कविता के बहुचर्चित और सर्वाधिक विवादास्पद विषय लघु मानव को लेकर उनकी दृष्टि बहुत साफ़ है, और उनका काव्य पुरुष मुक्तिबोध के समान ही एक गतिशील जीवन दृष्टि और वैज्ञानिक रचना-प्रक्रिया की सहज परिणति के रूप में उभरता है।
यह समझ अस्मिता को शमशेर की काव्यगत कशमकश को जानने में निश्चय ही सहायक सिद्ध होती है।
अस्मिता द्वारा की गयी शमशेर की रचना-प्रक्रिया और रचना-संसार की व्याख्याएँ कवि की अनुभूतियों, भाव बोध, रचनात्मक अनुशासन और बिम्बों को आधार की तरह इस्तेमाल करती हैं। उसी तरह रचना-संसार के अन्तर्गत वह शमशेर की संघर्षशील चेतना, युगबोध, और सम्प्रेषण को भी बहस के दायरे में लाती हैं। निजता का रहस्य उनकी आलोचना-रुचि का महत्वपूर्ण विषय है। पुस्तक के ये खंड शमशेर के अध्येता के लिए विशेष सार्थकता लिये हैं। इनमें मुख्य भूमिका अस्मिता के उस वैचारिक परीक्षण की है जो उन्हें अध्यापकीय अनुभव से मिला। पूरी पुस्तक में अस्मिता का वह अध्यापकीय स्वर सुनाई पड़ता है। वह इस किताब की धुरी है। मसलन, यह टिप्पणी देखें–
विविध काव्यान्दोलनों और शैलियों के दबावों को शमशेर ने झेला है, जिसके कारण वह कभी रूपवादी, तो कभी विशुद्ध भाववादी और कभी सौन्दर्यवादी दिखते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। शमशेर को ऐसे किसी संकुचित दायरे में रखकर उन पर कोई लेबुल लगाना उनके प्रति अन्याय होगा। यह शमशेर की असमर्थता है कि तमाम शैलियों और काव्य-वादों के प्रभाव को झेलते हुए उन्होंने कविता को एक नई राह देने का अथक संघर्ष किया है– तार-तार हो जाने पर भी जीने और जीकर फिर नई सृष्टि की रचना की उनकी उद्दाम इच्छा को, उनके संघर्ष को (यह नहीं राह) सामने लाती है।

अस्मिता का यह नज़रिया इस चीज़ पर बल देता है कि शमशेर के काव्य को समग्रता में समझा जाये, और उन सरोकारों के मद्दे नज़र कविताओं की व्याख्या हो। कारण, कि वह सरोकार जीवन भर कवि को अपने रेशे-रेशे में उलझाये रहे। यदि ऐसी व्याख्या न की गयी तो रचना के चरित्र को साफ़-स्पष्ट नाम या लेबल देना समूचे अर्थ ग्रहण में बाधक होगा। 

पुस्तक खरीदने के लिये यहाँ क्लिक करें

Comments

Popular posts from this blog

भारत के विलक्षण वीरों में से एक शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की जयंती के अवसर पर सादर नमन करते हुए

नये मगध में (कविता संग्रह) - राकेशरेणु