विश्व सिनेमा में स्त्री – विजय शर्मा


विजय शर्मा की पुस्तक 

विश्व सिनेमा में स्त्री

फिल्मों में हमें तरह-तरह की माँ के दर्शन होते हैं। इनमें से कुछ स्त्रियाँ सास भी हैं। 'परमा’ की सास घर की सर्वेसर्वा है, शुरू में वह बहु को फोटोशूट्स की इजाजत दे देती है। मगर जब बहु की स्वायत्ता देखती है तो सहन नहीं कर पाती है और परम्परागत सास की भूमिका में आ जाती है। सास तो 'पाच्र्ड’ में भी है मगर वह अपनी परम्परागत सास की भूमिका का अतिक्रमण करती है बहु को अपने हाथों स्वतन्त्र कर देती है और सामने वाले को यह भी जता देती है कि वह इस स्त्री के साथ बुरा बरताव न करे वरना वह उसे छोड़ेगी नहीं। 'बागवान’ की सास बहुओं के प्रति कोई विशेष भूमिका अदा नहीं करती है। 'द जापानीज वाइफ’ की सास इनसे अलग है। उसकी बहु भी उससे हजारों मील दूर है। शुरू में उसे यह पूरा सम्बन्ध विचित्र लगता है लेकिन अन्तत: वह इसे स्वीकारती है। बहु उसके लिए दूर देश से बुन कर स्वेटर भेजती है तो वह विगलित हो उठती है। मौसी स्नेहमय तथा मियागी के रिश्ते को स्वीकार कर अपनी प्रगतिशीलता का, अपने नारी सुलभ कोमल हृदय का परिचय देती है।

संग्रह में शामिल $िफल्मों की कई स्त्रियाँ पत्नी हैं। पियरे की पत्नी फ्ऱांका ('सॉ$फ्ट स्किन’) को पति के अन्य रिश्ते का पता चलने पर वह उसे मा$फ करने को राजी है लेकिन पति के व्यवहार में सुधार न देख कर एक मजबूत कदम उठाती है। आशिमा, पूजा समर्पित पत्नियाँ हैं। परोमा भी प्राणपण से पति और परिवार की सेवा करती है लेकिन वक्त आने पर सबसे नाता तोडऩे की हिम्मत भी रखती है। सबसे अनोखी है 'द जापानीज वाइफ’ की पत्नी मियागी (चियागी टाकाकू)। पेन-फ्ऱैंड को हजारों मील दूर से पति मान लेना और उसी के लिए जिन्दगी कुर्बान कर देना। न पति का देश देखा है, न उसकी भाषा मालूम है, न ही पति को देखा है और न ही उससे मिलने की कोई सम्भावना है। मगर प्रीत तो प्रीत है। पक्षी और प्रीत को कौन रोक सका है। मियागी को पत्नी की परिभाषा में बाँधना कठिन है, वह एक नई परिभाषा निर्मित करती है।

ऊपर हम कुछ बेटियों को देख आये हैं। 'मेघे ढ़ाका तारा’ की नीता (सुप्रिया चौधुरी) परिवार के लिए अपना जीवन होम कर देती है। परिवार के सब लोग उससे लाभ उठाते हैं कोई उसकी परवाह नहीं करता है। छोटी बहन तो उसका प्रेमी भी छीन कर उसे अपना पति बना लेती है। माता-पिता सब उसका दोहन करते हैं। 'पीकू’ की पीकू इन सब बेटियों से बहुत अलग है। उम्र दराज सनकी पिता की नकचढ़ी, तुनक मिजाज बेटी (दीपिका पादुकोण) आजाद ख्याल स्त्री है। आर्थिक रूप से स्वतन्त्र, देह को ले कर अकुंठ मगर पिता से भावात्मक रूप से गहराई से जुड़ी हुई। पिता की उल्टी-सीधी हरकतों को सहती हुई क्योंकि वह जानती है कि माँ-बाप एक उमर के बाद स्वयं नहीं जीते हैं, उन्हें जिलाये रखना पड़ता है। पिता की देख-रेख में अपने यौवन को खपा देना उसकी बाध्यता नहीं है, उसने इसे स्वयं चुना है।

रानी ('क्वीन’) भी बेटी है। माता-पिता की बात मानने वाली। मगर दूसरी बेटियों से भिन्न है यह बेटी। महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं का सिर्फ ताकत से सशक्त होना नहीं, बल्कि मन से सशक्त होना है। रानी (कंगना राणावत) इसका उदाहरण है। यह आम लड़की शराब नहीं पीती, सेक्स नहीं करती, सिगरेट नहीं पीती, छोटे कपड़े नहीं पहनती। $िफल्म के अन्त में खास बनकर निकलती है। 'दंगल’ की बेटियाँ पिता की महत्त्वाकांक्षा को अपना कर गोल्ड मेडल ले आती हैं। लेकिन प्रश्न वहीं अड़ कर खड़ा है, यदि उनका भाई होता तो क्या पिता उन्हें ऐसा ही प्रशिक्षण और मान-सम्मान देता? क्या तब भी पिता उन गर्व करता?

कामकाजी स्त्रियों की एक अलग श्रेणी होती है। घरेलू स्त्री से भिन्न। ये घर-बाहर दोनों का दबाव झेलती हैं। 'कॉरपोरेटÓ की नायिका ऐसी ही स्त्री है। उसने कॉरपोरेट जगत के लटके-झटके सीख लिये हैं। फिर भी पुरुष सत्ता दिल के हाथों मजबूर इस स्त्री को मात दे देती है। 'मेघे ढ़ाका तारा’ की नायिका कामकाजी स्त्री है मगर $िफल्म उसके इस पक्ष को ज्यादा रेखांकित नहीं करती है। 'मोनालिसा स्माइल’ की नायिका कामकाजी है और अपनी शर्तों पर काम करती है। कैथरीन वाटसन निजी जीवन से अधिक समाज का विचार परिवर्तित करने के लिए संघर्ष करती है। एक परम्परागत समाज को तर्कपूर्ण चिन्तन की ओर प्रवृत कर सफल हो कर कॉलेज छोड़ती है। 'पीकू’ कामकाजी स्त्री है लेकिन उसका खुद का व्यवसाय है। फिल्म उसके व्यवसायगत मसलों पर ध्यान केंद्रित नहीं करती है।





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