नये मगध में (कविता संग्रह) - राकेशरेणु

 

राकेशरेणु



नये मगध में
(कविता संग्रह)

जो इस पुस्तक में न छप सका

घर

जब मिस्त्री ने कहा कि ईंटें कच्ची हैं
वे दौड़े-दौड़े गए ईंट भट्टे वाले के पास
कहा अच्छी पकी ईंटें दो
ताकि मेरे बाद मेरे बच्चों के काम आये घर।
जब मिस्त्री ने कहा सीमेंट पुराना है, थोड़ा बेहतर हो
वे दौड़े पसीनाए पहुँचे
सीमेंट व्यापारी के पास
कहा, पैसे लेते हो तो अच्छी चीज दो
ताकि घर मजबूत बन सके
ताकि मेरे बाद बच्चों के काम आए।

धूप में पसीनाए गए वे टाल की दुकान में
गोदाम में घूमते रहे अच्छी पकी लकड़ी की तलाश में
उन्हें टिकाऊ चौखट-दरवाजे बनाने थे
जो पीढ़ियों का साथ दें पीढ़ियों तक
इस तरह बना घर।

फिर एक दिन वे बड़ी-बड़ी मशीनें लेकर आए
कहा, तुम्हारा घर तुम्हारा नहीं है
तुम्हारी जमीन तुम्हारी नहीं
तुम्हारे परदादा यहाँ के नहीं थे
तुम मेरे जैसे नहीं
बस्ती में तुम्हारे घर के लिए जगह नहीं
और उन्होंने घर ढहा दिया।

जिस घर को बनाने में रीत गई पीढ़ियाँ
वह घर हमारी आँखों के सामने कराहता गिरा
ऐसे जा बैठा जमीन पर जैसे उसका कोई घुटना न हो
उसकी जाँघें न हों, एड़ियाँ, उँगलियाँ
जैसे रेत में दबा दिए गए हजारहा शव
ठीक वैसे ही दबा दिया गया घर रेत में।

... इस पुस्तक में न होते हुए भी, इसी से...


1990 के दशक की कविता की चर्चा के दौरान, उसके सामाजिक सरोकारों पर विस्तार से बात होती रही है लेकिन उस बदले हुए दौर की एक सीमा यह थी कि जो नई पीढ़ी सामने आयी, उनकी रचनाओं में प्रतिरोध का पक्ष बहुत कमज़ोर था। फिर भी, थोड़े से ऐसे कवि ज़रूर आये, जिन्होंने प्रतिरोध की परंपरा को न केवल बचाए रखा, बल्कि उसे भरसक आगे बढ़ाने का उपक्रम भी किया। उन्हीं कुछ कवियों में एक राकेशरेणु हैं। ‘नये मगध में’ उनका तीसरा कविता संग्रह है। शीर्षक से ही ज़ाहिर है, ‘मगध’ ने जो कभी सत्ता की क्रूरता, अहंकार और मतिभ्रम पर कड़े प्रहार से प्रतिरोध की एक नयी राह बनायी थी, राकेशरेणु ने उस दिशा में आगे बढ़ते हुए, कुछ और जोड़ने का प्रयास किया है। संकलन के शुरू में ही यह कविता-शृंखला ‘नये मगध में’ नाम से है, जिसमें पंद्रह कविताएँ हैं। यह पूरी शृंखला प्रतिरोध का भाष्य रचती है। पिता और प्रेम को केन्द्र में रखकर भी कुछ शृंखलाबद्ध कविताएँ इस संग्रह में शामिल हैं लेकिन प्रतिरोध इस संकलन का मुख्य स्वर है।
ग़ौरतलब है कि कवि ने मगध के गुप्तवंश के एक ऐसे शासक को केन्द्र में रखा है, जिसने राज तो लम्बे समय तक किया (कोई 30 वर्ष तक) लेकिन, उसकी उपलब्धियाँ कुछ ख़ास नहीं थीं। घटोत्कच के नायकत्व को केन्द्र में रखने का भी अपना एक अर्थ है। कवि वर्तमान शासन व्यवस्था की छवि को शायद उसके माध्यम से ही सही ढंग से व्यक्त कर सकता था। इस शृंखला की अंतिम कविताओं में तो सीधे-सीधे आज का यथार्थ आ गया है, जिसका विस्तार अन्य कविताओं, ‘लौट आऊँगा’, ‘किसान’, ‘...चमकी बुख़ार’ आदि में हुआ है।
रंगों पर लिखी उनकी कविताएँ भी विशेष ध्यान खींचती हैं। हिन्दी में रंगों को लेकर कई महत्वपूर्ण कवियों ने अलग-अलग तरह से उल्लेखनीय कविताएँ लिखी हैं लेकिन राकेशरेणु का स्वर बिलकुल अलग है। लाल, नीला, हरा और काला को वे सिर्फ रंग के रूप में नहीं देखते बल्कि प्रकृति और जीवन के किसी न किसी पक्ष से जोड़कर उसे नए आयाम के साथ नया अर्थ देते हैं। विशेष रूप से लाल रंग को लेकर लिखी गई उनकी कविता को देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने इस रंग को प्रेम से शुरू करके समताकारी भोर का बिम्ब बना दिया है। रंगों को लेकर लिखी गईं ये कविताएँ प्रतिरोध का नया रूपक रचती हैं।
राकेशरेणु की कविताओं में, प्रेम का भी एक मज़बूत स्वर है। अधिकांश कविताओं में स्त्री के संघर्ष और करुणा को गहराई से उकेरा गया है। सबसे आगे बढ़कर कवि जब यह कहता है :
आज़ाद होना चाहते हो तो प्रेम करो
नफ़रतें मिटाने के लिए प्रेम करो
. . . .
हर विभाजन के ख़िलाफ़ प्रेम करो
ज़ुल्मतें मिटाने के लिए प्रेम करो
दु:शासन हटाने के लिए प्रेम करो
तब अचानक ये पंक्तियाँ हमारे समय का नारा बन जाती हैं।
– मदन कश्यप

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