देवदार के तुंग शिखर से
विजय शर्मा
पुस्तक का शीर्षक: प्रो. सत्य चैतन्य के सौजन्य से!
‘देवदार के तुंग शिखर से’ पुस्तक का यह नाम देने के पीछे कारण है। इस पुस्तक में जितने रचनाकारों पर आलेख हैं वे सब देवदार की तरह हैं, ऊँचे, मजबूत और दीर्घायु। भौतिक रूप से सब साहित्यकार दीर्घायु नहीं हैं, हो भी नहीं सकते हैं। भौतिक शरीर की अपनी सीमा होती है। लेकिन ये दीर्घायु हैं अपनी रचनाओं के बल पर। इसकी रचनाएँ काल की सीमा के परे जाती हैं। सौ-दो सौ साल बाद भी पढ़ी जाती हैं, याद की जाती हैं, चर्चा-विमर्श का केंद्र बनती हैं। देवदार ऊँचाई पर पाया जाने वाला वृक्ष है, ऊँचा, मजबूत और सम्मानजनक। ये साहित्यकार भी ऊँचाई पर स्थित हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी देवदार सीधा-सतर खड़ा रहता है। इस सदाबहार पेड़ की जड़ें अपनी धरती में मजबूती से गहरी धँसी होती हैं। जड़ें धरती की गहराई से अपना जीवन सत्त ग्रहण करती हैं। कम-से-कम पानी की मात्रा से भी जीवन सींचती हैं। तूफ़ान और बाढ़ में भी यह नहीं उखड़ता है। इसे आसानी से नहीं हिलाया जा सकता है। इसकी पत्तियाँ नुकीली-कँटीली लेकिन हरी-भरी होती हैं। नुकीली होती हुई भी आदमी और जानवर की तीखी धूप तथा गर्मी से सुरक्षा करने में सक्षम। अन्य वृक्षों की बनिस्बत इसकी पत्तियाँ बहुत कम मात्रा में जल समेट कर रखती हैं। वे लालची नहीं होती हैं। इस वृक्ष में इसीलिए संग्रह की न्यूनतम मात्रा होती है। यह बेकार का बोझ नहीं ढ़ोता है। बरसात का पानी न्यूनतम पानी ले कर अधिकतम जल बिना रुकावट धरती पर बहने देती हैं ताकि अन्य जीवों का अधिकतम पोषण हो सके। इन रचनाकारों ने भी समाज से जितना लिया उसे कई गुणा बढ़ा कार समाज को लौटाया। देवदार खुले में निष्कवच खड़ा होता है, रचनाकार भी समाज के आदर और आलोचना के आघात झेलता है। इनका ऑथेंटिक लेखन समाज को दिशा देने के लिए समाज की तत्कालीन दशाओं का चित्रण करता है। सच्चा रचनाकार आलोचना से घबराता नहीं है और न ही घबरा कर अपना रचनाकर्म बंद करता है। इसीलिए यह शीर्षक।
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