आधी रात का किस्सा गो – शेखर मल्लिक
आधी रात का किस्सा गो
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“पता नहीं!” जितेन हँस पड़े, “उसने सीधे-सीधे कभी बताया नहीं... जबकि वो इतना स्ट्रेट लड़की थी। उससे ज्यादा तो ये दल के साथी हँसते-हँसते आगाह करते थे, अबे जितेन, मर जाओगे। डायन है वह, इंग्लिश डायन! तुम्हारा दिल निकाल के मैड्रिड भाग जायेगी और तुम इधर मर जाओगे!”
अनु का घर आ गया। बेटे को गोद में लिये उतर आयी। जितेन भी कार से बाहर आये, “बिना खाना खाये तुम्हारा बेटा सो गया।”
“हाँ अब तो उठाने पर भी नहीं उठेगा।”
अनु ने उनके वापस बैठने से पहले पूछ लिया, “वह अचानक चली गयीं! कब चली गयीं और कैसे गयीं?”
“कहाँ गयी! वो नहीं गयी। यहीं इंडिया में रह गयी।” जितेन कार का दरवाजा पकड़े हुए उसकी ओर मुड़े।
“यहीं है!” अनु के चेहरे पर आश्चर्य का रोमांच उभर आया।
“हाँ, यहीं है।”
“कहाँ?”
“मालूम नहीं। कोई कह रहा था कि यहीं कहीं ‘माता जी’ बनके रह गयी है। यहीं किसी आदिवासी गाँव में...”
“वे यहाँ से जा न सकीं! शायद आप से सचमुच उनको प्यार था... वे ये जमीन नहीं छोड़ सकीं। चलिये न काका एक दिन उनके पास।” अनु बच्ची-सी उछाह से बोलीं।
“कहाँ ढूँढ़ेंगे उसको?”
“ढूँढ़ लेंगे। उन्होंने एक दिन आपको खोज लिया था न, आज आप उनको खोज लीजिये!”
जितेन हँसने लगे।
“क्यों हँस रहे हैं काका, आपको मुश्किल लगता है?”
“जानती हो कितने साल हो गये? पैंतीस साल...! अब बूढ़ा-बूढ़ी मिल भी जायें तो क्या बात करेंगे।”
“काका, आप ने शायद मार्खेज का उपन्यास नहीं पढ़ा, उस पर एक फ़िल्म भी है ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलेरा’... देखियेगा। मेरे पास है।” अनु मुस्कुराते हुए बोली।
“अच्छा जा, बच्चे को सर्दी लग जायेगी। मौसम ठीक नहीं है।” जितेन काका ने बुजर्ग की तरह बरजते हुए कार को फिर से स्टार्ट कर लिया। कार आगे बढ़ गयी।
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